दरख़्त-ए-ज़िंदगी | Rekhta Shayari


दरख़्त-ए-ज़िंदगी से
इक और पत्ता
टूट कर गिर गया,
साल ऐसे गुज़रा
जैसे कोई मेहमाँ आकर
वापस अपने घर गया ।


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