मुहब्बत के नुक़साँ | Ghazal | M S Mahawar

बड़ा  ही   जो  तुम   मुस्कुराने  लगी  हो

है कुछ बात   जो तुम   छिपाने  लगी हो

 

इरादा  है  क्या   दूर   जाने   का  मुझसे

ज़ियादा  ही  तुम   पास  आने  लगी  हो

 

बड़ी  ही  मशक्कत  से  आँसू  ये निकले

यहाँ   तुम   मुझे  चुप  कराने   लगी  हो

 

अभी तो   नज़र भर ही   देखा  तुम्हें और

मुहब्बत   के   नुक़साँ   बताने   लगी  हो

 

निकलती  नहीं  थी  कभी  घर  से  बाहर

गली  में   मिरी   आने  जाने    लगी   हो

 

थी उम्मीद  तुम  से  निगह-दारी  की  आज

नज़र  मुझसे  ही   तुम   चुराने   लगी  हो

 

तिरा    रोकना    टोकना    क़समें   दे   कर

मुहब्बत    मिरी     आज़माने    लगी    हो

 

हुआ  वस्ल  में  जान   कुछ भी    तुमसे

अभी   हिज्र   के   दिन   गिनाने   लगी  हो

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